यह बुदबुदाती ख्वाइशों को रौंधते कदम,
अपनी ही कब्र की ओर अग्रसर |
विराम इन्हें दे कोई सपनों की डोर,
खड़े हैं यह ख़ुदकुशी के तट पर ||
मन मस्तिष्क का टूटता परस्पर मेल,
न जूं रेंगी हिदायतों की, न काम ए गोपाल गिरधर |
हताश ह्रदय, बिखरा पड़ा क़दमों में,
महत्वाकांक्षाएं छोड़ गई ठुमकती, रुख मोड़कर ||
धुन्दलाता सूर्य फीका सा, अस्त हुआ,
प्रतीत हुआ भेड़ का मुख, जहाँ होता था इंसान का सर कल तक |
दिशाहीन होकर दिशा में बहते जा रहे,
किनारे आज तक कोई पहुँचा नहीं, परंतु जा रहे सभी किनारे पर ||
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